बोधगया की जीवन-पद्धति
बोधिरक्षित एक तीर्थयात्री थे उन्हे पहले से ही तीर्थयात्रा करने का शौक़ था। वो स्थानीय शिलालेखों के मुताबीक पहली सदी में श्रीलंका से बिहार बोधगया आए थे। उसी काल में ही बोधगया में बोधि या पीपल का पेड़ प्रसिद्ध था, जिसके नीचे गौतम बुद्ध को ज्ञान को ज्ञान प्राप्ति हुई थी। इससे जाहिर है की बोधिरक्षित ने अपनी यात्रा के दौरान 180 फीट ऊंचा महाबोधि मंदिर नहीं देखा होगा। बुद्ध, बोधिसत्त्वों और तांत्रिक बौद्ध धर्म के यमांतक और वज्रवराही जैसे उग्र देवी-देवताओं की प्रछाइयों से भरपूर ईंट का बना हुआ यह मंदिर गुप्त काल में उनकी यात्रा के तक़रीबन पांच सौ साल के बाद बनाया गया था।
बोधगया का इतिहास
वर्तमान समय में दुनियाभर से लोग बोधगया आते हैं इसलिए यह समझना आसान है कि क्या यह जगह तकरीबन 2,500 सालों से तीर्थस्थान बनी हुई है, जबसे सिद्धार्थ गौतम ने यहां पर ज्ञान प्राप्त किया था हक़ीक़त में 19वीं सदी के प्रारम्भ में लगभग पूरा भारत बौद्ध धर्म से बिल्कुल अनजान था। बुद्ध को केवल विष्णु और अन्य पुराणों के लिए संदर्भित किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि महाबोधि मंदिर और उसके आसपास 16वीं शताब्दी से हिंदू महंत साम्राज्य का शासन था।
बौद्ध धर्म की दुबारा खोज के चक्कर में अंग्रेज़ी इतिहासकारों और पुरातत्त्वविदों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सर एडविन अर्नोल्ड ने बुद्ध के ज्ञान पर ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ नाम की एक किताब लिखी है। श्रीलंका के धर्मपाल के प्रयासों की वजह से बोधगया का पुराना गौरव फिर से लौट आया था। 19वीं सदी के आखिर में उनकी तरफ से शुरू की गई कानूनी प्रक्रिया के वजह से बौद्धधर्मी इस स्थान पर दावा करने लगे। 1933 में अंगारिका धर्मपाल की हो गई और उसके बाद सन् 1949 में भारत सरकार ने बोधगया को तीर्थस्थान घोषित किया। आज बोधगया यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल बन चुका है।
बोधगया का नामकरण
तक़रीबन पच्चीस सो साल पहले नेपाल में कपिलवस्तु से शाक्य वंश के राजकुमार सिद्धार्थ यहां की नेचुरल सुंदरता से काफी मोहित हुए थे। इसके पास नेरंजारा नदी के किनारे उरुवेला गांव था। बाद में इस गांव को पहले संबोधि और उसके बाद फिर महाबोधि और बताया जाता है की आखिर में लगभाग 18वीं सदी में बोधगया का नाम दिया गया।
बोधगया में यूनानी प्रभाव
लगभग तीसरी सदी से पहले सम्राट अशोक ने इस जगह पर हीरे का आसन स्थापित किया था। उनकी एक पत्नी को अशोक के बौद्ध धर्म के लिय पैदा हुए लगाव से इतनी जलन हुई कि उसने उस पवित्र पेड़ को काट दिया। और सौभाग्य वाली बात यह रही की अशोक की बेटी संघमित्रा इस पेड़ के कुछ पौधे अपने साथ श्रीलंका ले गई थी और उसने वहा से एक पौधा वापस बोधगया भेजा। आज इस पेड़ के चारों तरफ़ बलुआ पत्थर की बनी हुइ आड़ें हैं। ऐसा कहा जाता है की इनपर सूर्य देवता और लक्ष्मी की छवि मौजूद हैं। इनपर सेंटौर और उड़ने वाले घोड़ों के चित्र आज भी मौजूद है हैं, जो यूनानी प्रभाव की ओर इशारा करते हैं।
बोधगया का पुननिर्माण
लगभग 1500 साल पहले बनाए गए महाबोधि मंदिर की मरम्मत कई स्थानीय राजा वक्त के हिसाब से करवाते रहे। 19वीं सदी में भी बर्मा के राजा ने इसका पुनःनिर्माण करवाया और उसके बाद में ब्रिटिश पुरातत्त्व समाज का इस पुनःनिर्माण में योगदान रहा। थाईलैंड के राजा ने मंदिर के ऊपरी हिस्से पर सोना चढ़वाया।
Posted By - RAKESH KUMAR | TADKABRIGHT.COM
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